मेरी पाती…
.......आपके नाम ।
प्यारी बहनों,
आप सभी को दीपावली तथा आने वाले नव वर्ष की ढेरों
शुभकामनाएँ। आज मुझे आप सब से आत्मीय वार्तालाप करने की इच्छा हुई सो मैं आ गयी।
इस आशा व अपेक्षा से की किसी प्रकार आप सभी के जीवन मे लेश मात्र ही सही, पर सकारात्मक परिवर्तन ला सकूं ।
अपना देश महान पौराणिक धरोहरों का देश है। आप सभी ने
ये श्लोक तो अवश्य सुना होगा.....
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रामन्ते तत्र देवता: ॥“
अर्थात जहाँ नारी को पूजा जाता है, उस स्थान पर स्वयं देवताओं का वास होता है। पुरातन काल में स्त्री का ये
स्थान होता था।
किन्तु बाद में ये रूप बदल गया और फिर हमने सुना,
“ढ़ोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी, सकल तारणा के अधिकारी॥“
तुलसीदासजी की इस चौपाई को जितना भी हम चाशनी मे
लपेटने का प्रयास करें अंत मे इसका अर्थ वही है जो दिखता है।
और बहनों आज की स्थिति तो आप सब से छुपी नहीं है।
सम्मान व समकक्षता तो छोड़िए, जिस पुरुष का सृजन ही स्त्री द्वारा
होता है, उसी से वह असुरक्षित व आशंकित रहती है, फिर चाहे वह सत्रह साल का हो, या सत्तर साल का ही, चाहे सामान्य व्यक्ति हो या कोई संत।
कितने क्षोभ का विषय है ये हम सभी के लिए। यही नहीं
समाज का पतन निरंतर जारी है, जो की कहाँ रुकेगा, ये तो मानव की विचार-शक्ति से भी परे है।
तो अब? क्या इसका
कोई उपाय नहीं?
चलिये कुछ समय के लिए इस क्लिष्ट समस्या से आपको दूर
करती हूँ। मन हल्का करने के लिए एक कहानी सुनाती हूँ। और वो कहानी, जो आप सब भी भली प्रकार जानते हैं....
हम चलते हैं रामायण की ओर। जब सीता हरण के बाद उन्हे
ढूँढने निकले हनुमान जी का दल सौ योजन के विशाल समुद्र के समक्ष खड़ा था, तब ये बात उनकी चर्चा का विषय था, कि उस विशाल
समुद्र को पार कर पाना, किसी भी वानर के लिए संभव नहीं था, सिवाय स्वयं हनुमानजी के। परंतु बाल्यकाल में अभिशप्त हनुमानजी को अपनी
असीम क्षमता व अथाह बल का भान नहीं था।
उस समय जम्ब्वंत जी ने आकर उन्हे उनके अथाह बल-कौशल की
याद दिलाई तब वे शाप-मुक्त हुये और उस विशाल समुद्र को लांघ कर लंका पहुँच कर सीता
जी का पता लगाया।
तो बहनों, ठीक उसी तरह
आज मैं आप सभी को आपमें निहित दैवीय शक्तियों का स्मरण कराने आई हूँ अपनी इस पाती
के साथ।
अब हम पुन: उस समस्या पर वापस आते हैं, जिसकी बात मैंने प्रारम्भ में की थी। तो इस सामाजिक पतन का क्या कोई उपाय
है? यदि है, तो क्या? और क्या वो संभव है?
तो चलिये समस्या के उत्सर्जन से उसे समझने की कोशिश
करते हैं। किसी भी समस्या का समाधान तब हो पाता है, जब हम
उस बिन्दु पर कार्य करें, जिसका प्रभाव सबसे अधिक व पूरी
समस्या पर कारगर हो। समाज में वह बिन्दु होती है “स्त्री”, जिसका दखल दो परिवारों व दो पीढ़ियों पर होता है।
समस्या शुरू होती है एक बच्ची के जन्म के भी पहले से, जबकि उसके परिवार वाले व समाज पहले ये तय करता है कि उसे ईश्वर कि बनाई
इस दुनिया मे आना चाहिए भी या नहीं। यदि किसी तरह वह भ्रूणहत्या से बच कर पैदा हो
पायी, तो जन्म के तुरंत बाद से उसे लिंग भेद का सामना करना
होता है। शिक्षा, सुविधाएं और तो और भोजन में भी उसे घर के
लड़कों की अपेक्षा उपेक्षित रखा जाता है, आखिर उसे तो ब्याह
करके विदा ही करना है, और उस पर दहेज की व्यवस्था एक
अतिरिक्त आर्थिक बोझ तो माना ही जाता है। लड़की होने के नाते घर के सारे काम काज, ढ़ोर बैल की सेवा छोटे भाई बहनों का रखरखाव इत्यादि उसके हिस्से में वैसे
ही आ जाते हैं।
अब इस परिपेक्ष्य में जैसे जैसे बालिका बड़ी होती
जाती है, उसके मन में भी ये हींन भावना घर करने लग
जाती है, की उसका लड़की होना एक बुरी बात है, और घर परिवार व समाज एहसान स्वरूप उसे झेल रहा है।
और अब जबकि वह शारीरिक रूप से कमजोर, व शिक्षा के अभाव में बुद्धि-विवेक से भी कमतर हो चुकी है, तो उसके पास कोई और विकल्प नहीं होता इसके सिवाय कि उसके जीवन का जो भी
निर्णय उसके घर वाले लें उसपर वह बिना प्रश्न के अमल करे।
बात यहीं समाप्त नहीं होती, ये तो उसकी किस्मत है की उसकी ठीक ठाक जगह शादी हो जाए, यदि नहीं तो निर्धनता व सामाजिक कुरीतियों के चलते उसे अस्वीकार्य
रास्तों पर डाल दिया जाता है, जिससे असामयिक गर्भ धारण, उससे संलग्न समस्याएँ, घातक बीमारियाँ इत्यादि उसके
जीवन को नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोडतीं।
क्या हम अपने किसी दुश्मन के लिए भी ऐसे जीवन की
कामना कर सकते हैं? नहीं ना?।
ज़रा सोचिए, जिस समाज की
तकरीबन आधी जनसंख्या इस तरह निकृष्ट जीवन यापन करती हो, तो
क्या वह समाज कभी प्रगति कर सकता है? शायद नहीं…
तो क्या हम अपने जैसी ही अपनी बहनों के जीवन स्तर को
सुधारने में सहायता नहीं करेंगे?
क्यूँ नहीं...बिल्कुल करेंगे ।
क्या यह कठिन है?...
शायद है, किन्तु ये
पक्का है की असंभव नहीं है।
तो चलिये अब हम एक एक चरण में इस समाधान को समझें...
-कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध युद्ध गति से आगे
आयें।
-अपने आस पास के परिवारों और मित्रों में जितनी अपनी
दखल हो, “एक या दो बच्चे बस, चाहे वो लड़का हो या लड़की”, इस प्रथा को आत्मसात
कराने का प्रयास कीजिये, और शुरुआत कीजिये अपने स्वयं के घर
से।
सबको समझाइए, आज के महंगाई
के दौर में एक या दो से अधिक बच्चों का लालन पालन भली प्रकार कर पाना मुमकिन नहीं
है।
-लड़को-लड़कियों की समान शिक्षा व समान रूप से पालन
पोषण हो, ये सुनिश्चित कीजिये।
-बचपन से ही बच्चों में चाहे वो लड़का हो या लड़की, स्वावलंबन व ज़िम्मेदारी की भावनाएँ जागृत कीजिये। याद रखिए, बचपन में जो बातें मन में घर कर जाती हैं, उन्हें
बाद में बदल पाना अत्यंत कठिन हो जाता है।
रूढ़िवादिता व छोटी सोच से ऊपर उठिए। जो आज आप अपनी
बच्ची को सिखाएँगी, वही आचरण वह आगे चल के अपने बच्चों
से करेगी।
-जितनी उच्च से उच्च शिक्षा बच्चों को दिला सकें यथा
संभव प्रयास कीजिये। सरकार द्वारा चलायी जा रही सारी योजनाओं की जानकारी लेते रहें, खास कर बालिकाओं के लिए और उनका लाभ उठाएँ।
-लड़की-लड़के दोनों को इस ज़िम्मेदारी का एहसास होना
चाहिए की उन्हें अपने बूते पर अपने पैरों में खड़े हो कर आपना संचरण स्वयं करना है।
इस चरण पर आ कर आपका कार्य कुछ कुछ सम्पन्न होता है।
स्वावलंबी बच्चे अपने जीवन के विषय मे स्वविवेक से
निर्णय लेने में सक्षम होंगे, और अब आप उनकी क्षमताएँ देख कर
आश्चर्य चकित हो जाएंगी। अब उन्हें अपने जीवन, विवाह, कैरियर और आगे के निर्णय स्वयं लेने दें, सिर्फ हर
कदम पर सहायता और यथासंभव मार्गदर्शन दें।
अब आप अपने उस दायित्व को पूर्ण समझें कि आपने देश
और समाज को एक समझदार और जिम्मेदार नागरिक दे दिया।
और फिर देखिये, देश प्रगति
कि राह पर किस तेज़ गति से अग्रसर होता है....
आशा करती हूँ मेरी कुछ बातें मेरी बहनों तक ज़रूर
पहुँचेंगी, और देर से ही सही,
भोर होगी अवश्य.....
......आपकी
श्रुति
......आपकी
श्रुति
No comments:
Post a Comment